स्वागत है दोस्तों आपका आज के हमारे एक और नए आर्टिकल में, तो दोस्तों आज के इस आर्टिकल में हम आपको एक ऐसे व्रत और उसके महत्व के बारे में बताने वाले हैं, जिसे करना बेहद ही ज्यादा फलदाई माना जाता है। तो दोस्तों हम बात कर रहे हैं पूर्णमासी व्रत की, जिसे की पूर्णिमा वाले दिन मनाया जाता है, कहा जाता है कि इस व्रत के दिन सत्यनारायण भगवान और माता लक्ष्मी की पूजा करना बहुत ही ज्यादा शुभ माना जाता है। इस दिन व्रत रखने से हमें भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का आशीर्वाद प्राप्त होता है, और घर में सुख समृद्धि आती है।
अगर बात करें इस व्रत को कब किया जाता है, तो हम आपको बता दें कि इस व्रत को महीने के आखिरी दिन यानी की पूर्णिमा वाले दिन किया जाता है, यानी की शुक्ल पक्ष की आखिरी दिन ही इस व्रत को किया जाता है। इस दिन सत्यनारायण भगवान और माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है, और इस दौरान एक व्रत कथा का भी पाठ किया जाता है, जिसे कि हम सभी पूर्णमासी व्रत कथा के नाम से जानते हैं। कहा जाता है कि इस कथा का पाठ किए बिना हमें इस व्रत का फल नहीं मिलता है, इसलिए यह जरूरी है कि अगर आप पूर्णमासी या फिर पूर्णिमा व्रत कर रहे हैं, तो इस कथा का पाठ जरूर करें। तो आज के इस आर्टिकल में हम आपको पूर्णमासी व्रत और व्रत कथा के बारे में पूरी जानकारी देने वाले हैं, तो यह जानने के लिए इस आर्टिकल में आखिरी तक बन रहे, तो चलिए आगे बढ़ते हैं और शुरू करते हैं।
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पूर्णमासी व्रत कथा (Purnamasi Vrat Katha)
पूर्णमासी की जो व्रत कथा है, उस कथा को स्वयं श्री कृष्ण जी ने यशोदा माता को कहा था। असल में यह बात है द्वापर युग की, जब यशोदा माता ने भगवान कृष्ण से कहा, कि हे कृष्ण तुमने ही इस पूरे संसार की उत्पत्ति की है, और तुम ही इस पूरे संसार के पोषक और संहार करता हो। तो क्या तुम मुझे किसी ऐसे व्रत और उसके महत्व के बारे में बता सकते हो, जिसे करने से मृत्यु लोग में स्त्रियों को विधवा होने का डर ना हो, और यह व्रत सभी मनुष्यों की मनोकामना को भी पूर्ण कर सके।
यशोदा माता की इन बातों को सुनकर श्री कृष्ण जी ने कहा, कि माता तुमने मुझसे बहुत ही सुंदर प्रश्न किया है, मैं तुम्हें एक ऐसे ही व्रत के बारे में बताता हूं, जिससे स्त्रियों को विधवा होने का डर ना हो, और जिससे उनकी मनोकामना भी पूर्ण हो। इसके बाद श्री कृष्ण जी ने यशोदा माता से कहा, स्त्रियों को सौभाग्य की प्राप्ति के लिए मृत्यु लोक में 32 पुर्णिमाओं का व्रत करना चाहिए, जिससे कि उन्हें सौभाग्य की प्राप्ति होती है, और उन्हें धन संपत्ति की भी प्राप्ति होती है। श्री कृष्ण जी के इस बात को सुनकर यशोदा माता ने श्री कृष्ण जी से कहा, कि मैं इस व्रत के बारे में और भी ज्यादा जानना चाहती हूं, मैं चाहती हूं कि तुम मुझे बताओ की मृत्यु लोक में इस व्रत को सबसे पहले किसने किया था।
यशोदा माता के प्रश्नों का उत्तर देते हुए श्री कृष्ण जी ने कहा, कि यह बात है एक कातिक नाम की एक नगरी की, जहां की एक चंद्रहास नाम का राजा रहता था, और वह नगरी सभी प्रकार के रत्न से परिपूर्ण भी थी। उस नगरी में एक ब्राह्मण रहता था, उसकी एक पत्नी भी थी, जो की दिखने में बहुत ही ज्यादा सुंदर और सर्व गुण संपन्न थी उसका नाम रूपवती था। दोनों खुशी-खुशी अपना जीवन यापन करते थे, क्योंकि उनके पास धन की भी किसी भी प्रकार की कमी नहीं थी। वैसे तो उन्हें किसी भी चीज की कमी नहीं थी, लेकिन एक कमी थी जो उनको हमेशा खलती थी, वह थी एक संतान की, क्योंकि उन दोनों की कोई भी संतान नहीं थी।
थोड़े दिन बीते कि उस नगरी में एक योगी आया, वह योगी इसी नगरी में रहा करता था, और लोगों के घर से भिक्षा मांग कर अपना पेट भरता था। लेकिन एक बात देखने वाली थी, कि वह योगी, नगर के सभी घरों से भिक्षा प्राप्त करता था, किंतु वह उस ब्राह्मण के घर कभी भी भिक्षा मांगने हेतु नहीं जाता था।
एक बार हुआ यह, कि जब धनेश्वर की पत्नी यानि कि रूपवती ने उस योगी को भिक्षा देने की कोशिश की, लेकिन योगी ने उस भिक्षा को लेने से इंकार कर दिया, और उसने किसी और घर से भिक्षा ले लिया। उसके बाद धनेश्वर ब्राह्मण ने देखा कि जो योगी है वह नदी के किनारे भिक्षा मांग कर खा रहा है, तभी वह उस योगी के पास जाता है, और उनसे कहता है, कि हे योगी जी, आप सभी के घर से भिक्षा ग्रहण करते हैं, लेकिन आप सिर्फ और सिर्फ मेरे घर ही कभी भिक्षा लेने नहीं आते, क्या मुझसे कोई गलती हो गई है, या फिर इसका कोई अन्य कारण है। जिसके बाद योगी जी ने उस ब्राह्मण से कहते है की हा इसका एक कारण है, और इसका कारण यह है कि तुम नि: संतान हो। नि: संतान के घर से भिक्षा लेना मेरे पतित का कारण का बन सकता है, कहीं तुम्हारे घर से भिक्षा प्राप्त करके मैं भी पतित न हो जाऊं इस डर से मै तुम्हारे घर से भिक्षा नहीं लेता हूं।
जब धनेश्वर ने उस योगी कि इन बातों को सुना, तो उसे बहुत ही ज्यादा दुख का अनुभव हुआ, इसके बाद दुख के कारण वह उस योगी के पैरों पर ही गिर गया, और उनसे आग्रह करने लगा, की हे महाराज, मेरे पास धन की किसी भी प्रकार की कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ और सिर्फ एक संतान की, कृपा करके आप मुझे संतान प्राप्ति का कोई उपाय बताएं, ताकि मुझे भी एक संतान की प्राप्ति हो सके, आपको तो सभी चीजों का ज्ञान है, जरूर आपके पास इसका कोई ना कोई समाधान जरूर होगा।
ब्राह्मण की इन बातों को सुनकर योगी ने ब्राह्मण से कहा, कि इसके लिए तुम्हें चंडी देवी की आराधना करनी होगी, इससे जरूर तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी। इसके बाद ब्राह्मण योगी जी का धन्यवाद करके तुरंत ही अपने घर जाता है, और अपनी पत्नी को इन सभी चीजों के बारे में बताता है, और अपनी पत्नी को लेकर तुरंत ही वन की तरफ चला जाता है, ताकि वह वहां चंडी देवी की आराधना कर सके। वह वहां जाकर चंडी देवी की आराधना करता है, उपवास भी रखता है।
ऐसे ही दिन बीतते रहते हैं, आखिरकार 16वे दिन चंडी माता प्रसन्न होकर ब्राह्मण को सपने में दर्शन देकर यह कहती है, कि मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं, मैं तुम्हें यह आशीर्वाद देती हूं कि तुम्हें जल्द ही एक पुत्र की प्राप्ति होगी, लेकिन चंडी माता ने ब्राह्मण से यह भी कहा, की तुम्हें पुत्र की प्राप्ति अवश्य होगी, किंतु तुम्हारा पुत्र सिर्फ और सिर्फ 16 वर्ष की आयु में ही मर जाएगा।
यह सुनकर ब्राह्मण ने माता से कहा, कि इसका कोई ना कोई तो समाधान होगा ही, जिससे की मेरे पुत्र की मृत्यु टल जाए, तो जिसके पास चंडी माता ने ब्राह्मण को कहा, कि हां इसका एक समाधान है, इसके लिए तुम्हें 32 पूर्णिमा का व्रत करना होगा, जिससे कि तुम्हारा पुत्र दीर्घायु हो जाएगा। इसके बाद चंडी माता ने यह भी कहा कि जितना तुम्हारा सामर्थ्य हो, तुम्हें उतने आटे के दिए बनाने होंगे, और शिव जी की पूजा करनी होगी, और पूरे 32 के 32 पूर्णिमा के व्रत करने होंगे।
इतना कहने के बाद चंडी माता ने ब्राह्मण से कहा, कि कल सुबह तुम इस स्थान पर फिर से आना, तुम्हे यहां एक आम का पेड़ दिखाई देगा, तुम्हें उस आम के पेड़ से एक आम तोड़कर अपने घर ले जाना है, और अपनी बीवी से इस फल को नहा कर एवं शिव जी का ध्यान करके खाने को कहना है। ऐसा करने से तुम्हारी पत्नी गर्भवती हो जाएगी, और उसे एक पुत्र की प्राप्ति होगी।
अगले दिन माता के कहे अनुसार ब्राह्मण उस जंगल में फिर से गया, जहां कि उसे सच में एक आम का पेड़ देखने को मिला, लेकिन जब वह उस पेड़ पर फल तोड़ने के लिए चढ़ा, तब वह उस पेड़ पर चढ़ ही नहीं पाया। इसके बाद उसे बहुत ही ज्यादा चिंता होने लगी, कि इस फल के बिना मुझे पुत्र की प्राप्ति नहीं होगी, तो आखिर मैं इस पेड़ पर किस प्रकार से चढ़ाई करू। जिसके बाद उस ब्राह्मण ने गणेश जी की आराधना की, और उनसे प्रार्थना की कि वह उसे इतनी शक्ति प्रदान करें, जिससे कि वह इस फल को तोड़कर अपनी पत्नी को खिला सके। गणेश जी की कृपा से हुआ यह, की ब्राह्मण के अंदर अचानक से ही शक्ति आ गई, और वह आसानी से उस आम के पेड़ पर चढ़ गया, और उस आम के फल को तोड़कर जाकर अपनी पत्नी को खिला दिया। जिससे हुआ यह, की माता की कृपा से ब्राह्मण की पत्नी गर्भवती हो गई, और कुछ दिनों बाद ही जाकर ब्राह्मण और उसकी पत्नी रूपवति को एक बहुत ही सुंदर सर्वगुण संपन्न पुत्र की प्राप्ति हुई, उस पुत्र का नाम ब्राह्मण ने देवीदास रखा।
क्योंकि माता के आशीर्वाद से ही ब्राह्मण को पुत्र की प्राप्ति हुई थी, इसलिए वह पुत्र पढ़ने लिखने और एवं शिक्षा प्राप्त करने में पूर्ण रूप से दक्ष था, और सर्वगुण संपन्न था, जिससे की उसके माता-पिता को बहुत ही ज्यादा खुशी होती थी। इतना ही नहीं, माता के कहे अनुसार देवीदास की माता ने 32 पूर्णमासी का व्रत रखने का संकल्प लेकर व्रत रखना भी प्रारंभ कर लिया था, ताकि उसकी पुत्र की मृत्यु 16 वर्ष की आयु में ना हो जाए।
आखिरकार वह दिन आ गया, जिस दिन का इंतजार ब्राह्मण और उसकी पत्नी को कभी भी नहीं था। यानी कि उनका पुत्र 16 वर्ष का हो चुका था, दोनों पति-पत्नी को इस बात का बहुत ही ज्यादा डर था, कि कहीं कोई अनहोनी ना हो जाए, कहीं उनके व्रत में किसी प्रकार की कमी ना हो गई हो, और कहीं उनके पुत्र की मृत्यु इसी वर्ष ना हो जाए। इसके बाद उन्होंने यह सोचा कि अगर उनके पुत्र की मृत्यु इस वर्ष हो जाती है, तो वह अपने सामने अपने पुत्र की मृत्यु नहीं देख पाएंगे। इसके लिए ब्राह्मण और उसकी पत्नी ने अपने पुत्र को शिक्षा के लिए काशी भेजने के बारे में विचार किया, क्योंकि वह खुद उसके साथ नहीं जा सकते थे, इसलिए ब्राह्मण ने अपने लड़के के मामा को अपने पास बुलाया, और उनसे कहा कि मैं चाहता हूं कि तुम मेरे पुत्र को 1 साल के लिए काशी ले जाओ, ताकि वह अच्छे से वहां शिक्षा प्राप्त कर ले, और जैसे ही वहा उसकी शिक्षा पूरी हो जाए, तो तुम दोनों वापस यहां आ जाना।
ऐसा कह कर ब्राह्मण और उसकी पत्नी ने अपने पुत्र और उसके मामा को काशी के लिए विदा किया, और उनके काशी के लिए निकलते ही ब्राह्मण और उसकी पत्नी ने पूरी विधि विधान से मां भवानी की पूजा और पूर्णिमा का व्रत करना प्रारंभ कर दिया था, ताकि उनके पुत्र की आयु दीर्घायु हो जाए।
इधर दोनों मामा भांजे को काशी जाते-जाते बहुत ही ज्यादा रात्रि हो गई, तभी उन्होंने एक नगर में ही रुकने का फैसला किया, और वह उस नगर के एक धर्मशाला में जाकर रुक गए। जिस नगर में वह रुके हुए थे, उस नगर में एक राजा के राजकुमारी की शादी भी हो रही थी, और उस शादी के लिए सभी लोग और सभी मेहमान उस धर्मशाला में ही रुके हुए थे, जिस धर्मशाला में देवीदास और उसके मामा रुके हुए थे।
उसके बाद हुआ यह, कि जैसे ही शादी की रस्म हो रही थी, उस दौरान जब शादी का समय आया, तब अचानक से ही वर की तबीयत बहुत ही ज्यादा खराब हो गई जिससे कि वह उस समय शादी करने की स्थिति में नहीं था। उस समय वर का जो पिता था, वह नहीं चाहता था की शादी में किसी भी प्रकार की अड़चन आए, इसलिए उसने यह सोचा, कि क्यों ना मैं इस लड़के यानी की देवीदास को अपने बेटे की जगह शादी में बैठा दूं, ताकि शादी बिना किसी समस्या के हो जाए, जब घर जाने की बात होगी, तो मैं अपने बेटे को मेरी बहू के साथ विदा कर दूंगा।
इसके बाद वर का पिता लड़के के मामा के पास जाकर यह सारी बात बता कर कहता है, कि क्या तुम थोड़े देर के लिए अपने बेटे को मुझे दे सकते हो, ताकि यह यह मेरे बेटे की जगह शादी में बैठ सके। इसके बाद लड़के का मामा वर के पिता से कहता है, कि ठीक है तुम ऐसा कर लो लेकिन इसके बदले मेरी एक शर्त है, कि तुम्हें शादी के रस्म में जो भी चीज प्राप्त होगी, उसे तुम्हें मुझे देना होगा। इस शर्त को सुनकर वर का पिता इसके लिए मान जाता है, और ब्राह्मण के बेटे को अपने बेटे के स्थान पर राजकुमारी के बगल में बैठा देता है।
इसके बाद हुआ यह, की देवीदास जाकर राजकुमारी के बगल में बैठ गया, दोनों की शादी हो गई, जिसके बाद जब भोजन करने की बात आई, तो राजकुमारी ने देखा कि उसका जो पति यानी की देवीदास है वह रो रहा है। जब राजकुमारी ने देवी दास से पूछा, कि हे स्वामी आप इतने ज्यादा उदास क्यों है, और आप रो क्यों रहे हैं, इसके बाद देवीदास ने राजकुमारी को कहा, की पता नहीं तुम किसकी पत्नी हो, तुम्हारे साथ जिसकी शादी होने वाली थी, वह मैं नहीं हूं, बल्कि उसकी तबीयत खराब हो गई थी तो मुझे उसके स्थान पर बिठाया गया है। इसके बाद राजकुमारी ने देवीदास से कहा, कि हे स्वामी, यह जो आप कह रहे हैं यह ब्रह्मा विवाद के विपरीत हैं, मेरी शादी आपसे ही हुई है, अब मैं ही आपकी पत्नी हूं, और आपकी ही मेरे पति है। यह सुनकर देवीदास ने राजकुमारी से कहा, कि ऐसा मत कीजिए, क्योंकि अभी मेरी उम्र बहुत ही कम है, अगर मुझे कुछ हो गया, तो उसके बाद आपका क्या होगा। इसके बाद राजकुमारी ने देवीदास से कहा, कि इस बात की चिंता आप मत कीजिए, आप शांतिपूर्वक अच्छे से भोजन ग्रहण कीजिए आपको जरूर ही बहुत ही ज्यादा भूख लगी होगी, उसके बाद आप विश्राम कर लीजिएगा।
भोजन करने के बाद दोनों सोने के लिए चले गए, अगले दिन जब देवीदास काशी के लिए निकलने वाला था, तो उससे पहले उसने अपनी पत्नी यानि की राजकुमारी को तीन नगो से जुड़ी एक अंगूठी देता है, साथ ही साथ एक रुमाल देता है, और उससे कहता है कि तुम इसे संकेत के लिए अपने पास रख लो। मैं जीवित हूं या नहीं यह जानने के लिए तुम एक पुष्प वाटिका का निर्माण करो, जिसमें की नव मल्लिका भी शामिल हो। और इस बात का भी ध्यान रखना कि तुम रोज जल से इस पुष्प वाटिका को सीचो। जिस दिन इस पुष्प वाटिका के फूल मुरझा जाएंगे, और सूख जाएंगे, उस दिन समझ लेना कि मेरा अंतिम दिन आ गया है, यानी कि मेरा काल मेरे नजदीकी है। लेकिन अगर यहां उस वाटिका के फूल हरे भरे ही रहते हैं, तो समझ लेना कि मैं जीवित ही हूं, ऐसा कहकर देवीदास राजकुमारी को विदा कहकर काशी के लिए निकल पड़ता है।
अगले दिन जब सभी मेहमान और सभी लोग शादी की रस्म पूर्ण करने के लिए एक जगह इकट्ठा हुए, तब राजकुमारी ने अपने नकली पति को देखकर कहा, कि यह मेरा असली पति नहीं है, मेरा असली पति तो वह है जिससे कल रात मेरी शादी हुई है, और जिससे कल रात मैंने बातचीत की है। अगर यह मेरा असली पति है, तो इसे इसका प्रमाण देना होगा, इससे कहिए कि वह मुझे वह सारे आभूषण दिखाएं, जो कि इसे कन्यादान में प्राप्त हुए हैं, और वह सारी बातें भी बताएं, जो मैंने इसे कल रात बताई थी।
इसके बाद राजकुमारी के पिता ने जब उस व्यक्ति से यह सारी बातें पूछी, तो उसने इन सभी बातों से इनकार कर दिया, जिससे कि राजा को भी अब पता चल गया कि यह राजकुमारी का असली पति नहीं है। जिसके बाद बारात को राजा ने वापस भेज दिया, और सभी मेहमान भी अपमानित होकर वापस चले गए।
इसके बाद लड़का और उसके मामा काशी पहुंच गए, उसने शिक्षा ग्रहण करना शुरू कर दी, लेकिन जिस दिन उसके काल का दिन आया, उस दिन काल ने एक सर्प को ब्राह्मण के पुत्र के प्राण हरने के लिए भेजा। जब देवीदास सो रहा था, तब वह सांप उसके कमरे में आया, किंतु न चाहते हुए भी वह उसे काट नहीं पाया, क्योंकि देवीदास के माता-पिता ने 32 के 32 पूर्णिमा के व्रत पूरे कर लिए थे, और उसके पुत्र को दीर्घायु का आशीर्वाद प्राप्त हो चुका था। इसलिए वह सांप देवीदास का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया।
जब सांप भी लड़के के प्राण नहीं हर पाया, तो स्वयं काल को उस बालक के प्राण हरने के लिए धरती पर आना पड़ा, जिसके प्रभाव से देवीदास मूर्छित हो गया, जब वह यूं ही मूर्छित पड़ा हुआ था, तभी शिव जी और पार्वती जी पृथ्वी लोक का भ्रमण कर रहे थे, वह जाकर देवीदास को इस हालत में जमीन में पड़ा हुआ देखते हैं, तभी माता पार्वती दुखी होकर भगवान शिव से कहती है, कि हे प्राणनाथ, यह क्या हो रहा है। आखिर देवीदास इस तरह से जमीन पर मूर्छित क्यों पड़ा है, उनके माता-पिता ने तो 32 के 32 पूर्णिमा के व्रत पूरे कर लिए हैं, कृपा करके आप देवीदास को पुनः जीवित कर दीजिए। पार्वती जी के आग्रह करने पर शिव जी ने देवीदास को पुनः जीवित कर दिया। और ब्राह्मण का बेटा होश में आकर उठकर बैठ गया।
दूसरी तरफ देवीदास की पत्नी यानि की राजकुमारी पुष्प वाटिका को ही संकेत के रूप में देख रही थी, जब उसने देखा कि पुष्प वाटिका में पुष्प और पत्ते दोनों ही नहीं है, तो उसे बहुत ही ज्यादा आश्चर्य हुआ और वह बहुत ही ज्यादा दुखी हो गई, उसे लगा कि उसके पति अब जीवित नहीं है, लेकिन जब अचानक से ही पुष्प वाटिका के सभी फूल और पौधे हरे भरे हो गए, तब उसे पता चल चुका था कि उसके पति देवीदास पुनः जीवित हो चुके हैं, जिसके बाद राजकुमारी ने अपने पिता से कहा, की पिता जी मेरे पति अभी भी जीवित है, कृपा करके आप उन्हें ढूंढने का प्रयास कीजिए।
इधर देवीदास की शिक्षा भी पूर्ण हुई, और दोनों मामा भांजे ने वापस अपनी नगर जाने का फैसला लिया। जैसे ही राजकुमारी के परिवार वाले देवीदास को ढूंढने के लिए जाने वाले थे, वैसे ही देवीदास और उसके मामा उस नगर में पहुंच जाते हैं, जिससे की राजकुमारी के पिता जी यह पहचान जाते हैं कि यही वह लड़का है जिससे कि मेरी बेटी की शादी हुई है, और वह दोनों मामा भांजे को अपने महल में आमंत्रित करते हैं, और दोनों की अच्छी तरह खातिरदारी करते हैं। वहां पहुंचकर राजकुमारी भी देवीदास को पहचान जाती है।
इसके बाद राजा ने अपने दामाद और उसके मामा को भरपेट भोजन करवाया, और अपनी बेटी को देवीदास के साथ खूब सारे उपहार देकर विदा किया, और तीनों यानी की देवीदास उसके मामा और देवीदास की पत्नी वापस अपनी नगरी की तरफ चल पड़े।,
इसके बाद जब तीनों अपने नगर पहुंचे, तब गांव वालो ने दूर से ही इन तीनों को आते हुए देख लिया, तो सभी गांव वासियों ने तुरंत ही ब्राह्मण और उसकी पत्नी रूपवति को जाकर यह समाचार दिया, कि उसका बेटा और उसके मामा आपकी बहू को लेकर नगर में प्रवेश कर चुके है। यह सुनकर एक बार तो ब्राह्मण और उसकी पत्नी को गांव वासियों के बात पर यकीन ही नहीं हुआ, लेकिन फिर वह अचानक ही देखते हैं कि उनका बेटा यानी की देवीदास उनके सामने आकर खड़ा हो जाता है, और उनके चरण स्पर्श करता है। यह देखकर उनको विश्वास ही नहीं होता, खुशी के कारण उनके आंखों से आंसू गिरने लगते हैं, जिसके बाद देवीदास की पत्नी ने भी ब्राम्हण और रूपवती के चरण स्पर्श किया, दोनों ने अपनी बहू को गले लगाया, और उनका अच्छे से स्वागत किया। क्योंकि आज के दिन ब्राह्मण बहुत ही ज्यादा खुश था, इसलिए उसने गांव में एक उत्सव का ऐलान किया, और सभी ब्राह्मणों को दक्षिणा भी दी, और उन्हें भोजन भी करवाया
अंत में श्री कृष्ण जी माता यशोदा से कहते हैं, कि माता यही है पूर्णमासी की व्रत कथा। जिस प्रकार से आपने देखा कि कैसे पूर्णमासी व्रत करने के फल स्वरुप ब्राह्मण को पुत्र की प्राप्ति हुई, और उसके पुत्र को दीर्घायु का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, इस प्रकार अगर कोई व्यक्ति भी पूर्णमासी व्रत करता है, और इस कथा का पाठ करता है, तो उसकी भी हर मनोकामना पूर्ण होती है, और अगर कोई स्त्री इस व्रत को करके इस कथा का पाठ करती है, तो उसे जीवन भर सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद प्राप्त होता है। कृष्ण जी ने यह भी बताया, कि जो भी व्यक्ति इस व्रत को सच्चे मन से करता है, उसकी सभी मनोकामनाएं साक्षात शिव जी पूर्ण करते हैं।
पूर्णमासी व्रत से क्या फल मिलता है?
तो दोस्तों अगर बात करने पूर्णमासी व्रत से क्या फल मिलता है, तो हम आपको बता दें की पूर्णमासी का दिन नारायण जी को समर्पित होता है, जो कि स्वयं भगवान विष्णु का ही अवतार है। साथ-साथ इस दिन माता लक्ष्मी की पूजा का भी विशेष महत्व बताया गया है। तो इस दिन अगर आप व्रत करके व्रत कथा का पाठ करते हुए भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा करते हैं, तो इससे आपकी हर मनोकामना पूर्ण होती है, और आपके घर में कभी भी धन-धान्य की कमी नहीं होती है। इतना ही नहीं, इस व्रत को करने से आपको शिव जी की भी कृपा प्राप्त होती है, इसलिए इस व्रत को हिंदू धर्म में बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है। कहां जाता है की पूर्णमासी के दिन चंद्रमा अपने 16 कलाओं से पूर्ण होता है, इसलिए अगर इस दिन आप व्रत रखकर इस कथा का पाठ करते हैं, तो आपकी कुंडली में चंद्रग्रहण की स्थिति भी मजबूत होती है। इसी के साथ-साथ इस व्रत को करने से परिवार में खुशी का माहौल रहता है, और कलेश घर परिवार से दूर रहता है।
पूर्णमासी व्रत के नियम (Purnamasi Vrat Ke Niyam)
दोस्तों अगर आप भी पूर्णमासी व्रत को करना चाहते हैं, और चाहते हैं कि आपको इस व्रत का पूरा फल प्राप्त हो, और आपकी भी हर मनोकामना पूर्ण हो, तो इसके लिए आपको नीचे बताए गए नियमों का पालन करना होगा, तभी जाकर आपको इस व्रत का पूरा फल प्राप्त होगा।
1: इस व्रत का सबसे पहला नियम यह है, कि इस दिन आपको व्रत रखना है, और व्रत कथा का पाठ करके ही अपने व्रत का पारण करना है।
2: इस व्रत को करने के दौरान आपको किसी भी प्रकार के ताप्सिक भोजन जैसे कि लहसुन प्याज, और किसी भी प्रकार के नशीले पदार्थ जैसे की शराब आदि का सेवन नहीं करना है।
3: इस दिन आपको भगवान विष्णु की तो पूजा करनी ही है, साथ ही साथ आपको विशेष रूप से भगवान लक्ष्मी जी की भी पूजा करनी है।
4: इस दिन आपको काले रंग के कपड़े भूलकर भी नहीं पहनना चाहिए आपको कोशिश करना चाहिए कि आप फल के रंग के कपड़े ही पहने।
5: व्रत में विष्णु जी की पूजा के दौरान जब आप विष्णु जी को भोग लगाएंगे, तो ध्यान दें कि विष्णु जी के भोग में तुलसी अवश्य हो, क्योंकि कहा जाता है कि तुलसी के बिना विष्णु जी भोग ग्रहण नहीं करते।
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